हिमांशु साँगाणी / गरियाबंद
धमतरी। सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 का कितना सही इस्तेमाल हो रहा है, इसकी बानगी हाल ही में धमतरी वन मंडल में देखने को मिली। आरटीआई कार्यकर्ता को जानकारी साझा करने के बजाय पेचीदा तारीखों का खेल दिखाकर उलझाने का प्रयास किया गया।
आरटीआई कार्यकर्ता को 13 दिसंबर को पेशी में उपस्थित होने का पत्र भेजा गया, लेकिन हैरानी की बात यह है कि यह रजिस्टर्ड लेटर आवेदक को 16 दिसंबर को प्राप्त हुआ। जब उन्होंने वेब साइट से आर्टिकल की स्थिति की जांच की तो चौंकाने वाली सच्चाई सामने आई— पत्र 12 दिसंबर को ही धमतरी से भेजा गया था, मगर वनमंडलाधिकारी द्वारा जारी किए गए पत्र में तारीख 10 दिसंबर अंकित थी।
तारीखों की जादूगरी
वन विभाग की इस चालाकी पर सवाल उठना लाजिमी है। यह पूरी स्थिति दो बातों की ओर इशारा करती है— या तो प्रथम अपीलीय अधिकारी जाधव कृष्णा अपने स्टाफ की कार्यशैली से अनजान हैं, या फिर वे खुद आरटीआई के तहत जानकारी देने से बचना चाहते हैं। जब इस संबंध में दूरभाष पर अधिकारी से संपर्क किया गया, तो उनका जवाब ‘मुझे इसकी जानकारी नहीं है’ कहकर मामले को गोल-मोल करने का रहा।
बड़ा सवाल: पारदर्शिता का दावा कहां खो गया?
सूचना के अधिकार का उद्देश्य जनता को सरकारी कामकाज में पारदर्शिता सुनिश्चित करना है, लेकिन धमतरी वन मंडल के इस रवैये ने कानून का उपहास उड़ाने की कोशिश की है। क्या यह जानबूझकर किया गया विलंब है या प्रशासनिक लापरवाही का एक और नमूना?
आरटीआई कार्यकर्ताओं के साथ ऐसे व्यवहार से यह साफ हो जाता है कि ‘सिस्टम’ का हिस्सा बने बैठे कई अधिकारी आरटीआई की आत्मा को न समझ पाए हैं और न ही समझना चाहते हैं। तारीखों का खेल और गोलमोल जवाब इस बात का संकेत देते हैं कि पारदर्शिता की राह में अभी लंबा सफर बाकी है।