हिमांशु साँगाणी गरियाबंद
गरियाबंद में नगर पालिका अध्यक्ष पद का चुनाव इस बार जनता के वोट से होना है, और यह सुनते ही राजनीतिक गलियारों में कुर्सी-कुर्सी का खेल शुरू हो गया है। हालात ऐसे हैं कि हर दूसरा नेता खुद को “जनता का सेवक” और “परिवर्तन का मसीहा” बताने में जुट गया है! कुछ नेता तो इतने सक्रिय हो गए हैं कि जो लोग पिछले पाँच साल में दिखाई भी नहीं दिए, वे अचानक हर चौक-चौराहों पर अपनी दावेदारी साबित करते नजर आ रहे हैं!

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि नगर पालिका का “अर्जुन” कौन बनेगा, और “कृष्ण” किसका रथ हांकेंगे? या फिर यह पूरा चुनाव कौरव-पांडव युद्ध में बदलकर “गुटबाजी महाभारत” ही साबित होगा?
भाजपा की टिकट-पहेली: मेहनतकश कार्यकर्ता या ‘हवा से आए’ दावेदार?
भाजपा में टिकट की दौड़ किसी ‘कौन बनेगा अध्यक्ष?’ के शो से कम नहीं है।
- जमीनी कार्यकर्ता – जो सालों से पार्टी का झंडा उठाकर सूरज में झुलस रहे हैं।
- पैराशूट नेता – जो ठीक चुनाव के समय “दिल्ली कनेक्शन” और “सेटिंग-गेटिंग” के सहारे सीधे उम्मीदवार बन जाते हैं।
पार्टी में गुटबाजी इतनी तेज़ हो गई है कि कुछ कार्यकर्ता तो यह मानने लगे हैं कि टिकट का असली खेल दिल्ली में नहीं, गरियाबंद और रायपुर के बड़े नेताओं की ‘ड्राइंग रूम मीटिंग्स’ में तय होता है।
एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया,
“हम मेहनत करते रह जाते हैं और टिकट किसी ऐसे को मिल जाता है, जो साल भर रायपुर या दिल्ली में बैठा रहता है। टिकट मांगने की औकात नहीं, यहां तो जिसे ऊपर वाले (स्थानीय हाईकमान) पसंद कर लें, उसे ही आशीर्वाद मिल जाता है!”
अब देखना यह है कि भाजपा इस बार मेहनत वालों को इनाम देगी या ‘VIP लॉबी’ वालों को टिकट देकर फिर गुटबाजी की आग में खुद को झोंक देगी!
कांग्रेस: टिकट से पहले ‘घर के भेदी’ से लड़ेगी या चुनाव लड़ेगी?
कांग्रेस की स्थिति घर के अंदर दो गुटों के कुश्ती मुकाबले जैसी है। पिछली बार पार्टी अपनी ही “जयचंद पॉलिसी” की वजह से अध्यक्ष पद से बाहर हो गई थी, और इस बार अगर वही गलती दोहराई, तो फिर से बाहर बैठकर “भाजपा को हराने का संकल्प” लेते रह जाएगी!
एक कांग्रेस कार्यकर्ता ने तंज कसते हुए कहा,
“हम भाजपा से क्या लड़ें, पहले हमें खुद की पार्टी के नेताओं से लड़ना पड़ता है! टिकट बंटते ही आधे लोग बगावत पर उतर आते हैं, और बाकी नाराज़ होकर छुट्टी पर चले जाते हैं!”
कांग्रेस के पास मजबूत दावेदार तो हैं, लेकिन “गुटबाजी का कैंसर” इस बार भी चुनावी जीत को निगल सकता है।
जनता की हालत: पांच साल तक गायब नेता, अब “घर-घर रथ यात्रा” पर!
नगर की जनता के लिए यह चुनाव किसी रोड शो से कम नहीं है।
जो नेता पिछले पाँच साल में जनता के बीच दिखे तक नहीं, वे अब “जनता का बेटा” बनने निकले हैं।
हर नुक्कड़ पर चुनावी चाय पार्टी और गुप्त बैठकों का दौर जारी है, मानो यह नगर पालिका का चुनाव नहीं, बल्कि संसद का महासंग्राम हो!
अब देखना यह है कि भाजपा अपनी गुटबाजी को संभाल पाएगी या नहीं? कांग्रेस अपनी “अंदरूनी लड़ाई” में ही निपट जाएगी या इस बार कुछ नया कर पाएगी? जनता इस चुनावी ड्रामे का मजा ले रही है, लेकिन असली फैसला चुनावी ‘महाभारत के भीष्म पितामह’ (वोटर) के हाथ में है!