हिमांशु साँगाणी
गरियाबंद | छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के गोहरापदर गांव में होलिका दहन के बाद अग्नि परीक्षा के दौरान एक ऐसा नजारा देखने को मिलता है, जिसे देखकर अच्छे-अच्छों के रोंगटे खड़े हो जाएं। यहां के ग्रामीण जलते हुए अंगारों पर नंगे पांव चलते हैं—बिना जले, बिना डरे! सदियों से चली आ रही इस परंपरा को लेकर मान्यता है कि इससे गांव पर कोई प्राकृतिक आपदा नहीं आती और सुख-समृद्धि बनी रहती है। लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर बिना जले अंगारों पर चलना संभव कैसे हो सकता है?

पहला कदम: गौहटीया और पुजारी की अग्नि परीक्षा
परंपरा के अनुसार, सबसे पहले गांव के गौहटीया (ग्राम प्रधान) और पुजारी धधकते अंगारों पर कदम रख अग्नि परीक्षा देते हैं। जब वे बिना किसी नुकसान के इस अग्निपथ को पार कर लेते हैं, तब गांव के अन्य लोग भी उसी आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ते हैं। मान्यता है कि जो सच्चे मन से इस अग्नि परीक्षा में उतरता है, उसे जलन महसूस नहीं होती।
अंधविश्वास या वैज्ञानिक कारण?
ये अग्नि परीक्षा की परंपरा जितनी रहस्यमयी है, उतनी ही रोमांचक भी। आखिर जलते कोयलों पर चलते हुए भी ग्रामीणों के पैर क्यों नहीं जलते? क्या यह आस्था की शक्ति है या फिर कोई वैज्ञानिक कारण? विशेषज्ञों की मानें तो कोयले की ऊपरी परत तेजी से ठंडी हो सकती है, जिससे झुलसने का खतरा कम हो जाता है। साथ ही, यदि चलने की गति और पैर रखने का तरीका सही हो, तो जलने की संभावना भी घट जाती है। लेकिन ग्रामीणों का तर्क इससे अलग है—वे इसे देवी-देवताओं का आशीर्वाद मानते हैं।
क्या इस परंपरा पर मंडरा रहा है खतरा?
आधुनिक दौर में कई पारंपरिक मान्यताएं विलुप्त हो रही हैं। युवा पीढ़ी भी अब इस अग्नि परीक्षा से बचने की कोशिश करने लगी है। सवाल यह है कि क्या आने वाले वर्षों में यह परंपरा जिंदा रहेगी, या फिर आस्था और विज्ञान के टकराव में यह भी कहीं खो जाएगी?