हिमांशु साँगाणी पैरी टाईम्स 24×7 डेस्क गरियाबंद
संविदा कर्मचारी 18वें दिन आंदोलन उग्र, अब गरियाबंद से तहसीलों तक गूंज रही है संविदा कर्मियों की पीड़ा गरियाबंद में एनएचएम संविदा कर्मचारियों का आंदोलन 18वें दिन उग्र, संविदा प्रथा का पुतला दहन और सामूहिक इस्तीफे का ऐलान। 20 वर्षों से स्थायीकरण की मांग पर सरकार की चुप्पी सवालों के घेरे में।
गरियाबंद तिरंगा चौक, गरियाबंद में गुरुवार को ऐसा मंजर देखने मिला जिसे शब्दों में बयां करना आसान नहीं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) के संविदा कर्मियों ने संविदा प्रथा का पुतला दहन करने का प्रयास किया मगर पुलिस प्रशासन ने पुतला छीन लिया जिसके बाद सांकेतिक तौर पर बैनर और पोस्टर को जलाकर नारेबाजी की गई । और सरकार की संवेदनहीनता पर सीधा वार किया। आंदोलन अपने 18वें दिन में प्रवेश कर चुका है, और अब मामला सिर्फ मांगों का नहीं बल्कि अस्तित्व की लड़ाई बन चुका है।

संविदा कर्मचारी 20 साल का दर्द और 18 दिनों की तपिश
प्रदेश के 16 हज़ार से अधिक एनएचएम कर्मचारी पिछले 20 वर्षों से अल्प वेतन और असुरक्षा में काम कर रहे हैं। कभी मलेरिया सर्वे, कभी डेंगू से जंग, तो कभी कोविड जैसी महामारी हर मुश्किल में यही संविदा कर्मचारी मोर्चे पर खड़े रहे। लेकिन जब बात नियमितीकरण, स्थायीकरण, पब्लिक हेल्थ कैडर, ग्रेड पे और अनुकंपा नियुक्ति की आई तो सरकार ने केंद्र के मत्थे मढ़ने की कला में पीएचडी कर ली ।
तहसीलों से उठी आवाज़, अब गरियाबंद बना गवाह
फिंगेश्वर, छुरा, मैनपुर और राजिम की तहसीलों से आए कर्मचारी एकजुट होकर गरियाबंद के तिरंगा चौक पर जमा हुए। पसीने से भीगे माथे और आंखों में आंसू गोद में बच्चों को लिए कर्मचारियों ने कहा
हमने प्रदेश सरकार को 160 से ज्यादा ज्ञापन दिए, लेकिन हमारी फाइल शायद सीएम हाउस के गुमनाम किसी कोने में धूल खा रही है।
सामूहिक इस्तीफे का बड़ा ऐलान
पुतला दहन के बाद कर्मचारियों ने सीधे सीएमएचओ कार्यालय जाकर सामूहिक इस्तीफे देने का निर्णय लिया। यह कदम सरकार के लिए सिर्फ चेतावनी नहीं बल्कि उस जनस्वास्थ्य व्यवस्था की हालत का आईना है, जिस पर पूरा ग्रामीण इलाका टिका हुआ है।
वादों के बुते सत्ता में मगर सुनाई अब भी नहीं
सरकार ने कहा था हम आपके साथ हैं।
कर्मचारियों ने जवाब दिया जी हां, लेकिन सिर्फ चुनावी भाषणों में।गरियाबंद की गलियों से लेकर मैनपुर के धुर नक्सली इलाकों तक, अब यह सवाल गूंज रहा है क्या संविदा कर्मियों का खून-पसीना सिर्फ सत्ता की कुर्सी चमकाने के लिए है?