हिमांशु साँगाणी पैरी टाईम्स 24×7 डेस्क गरियाबंद
गरियाबंद दिव्यांग प्रशिक्षण केंद्र कोकड़ी दिव्यांग प्रशिक्षण केंद्र उधारी पर चल रहा है। समाज कल्याण विभाग और एनजीओ के विवाद में 65 मासूमों का भविष्य अधर में पढ़ें पूरी खबर पैरी टाईम्स पर ।
गरियाबंद रोटी के लिए उधार, किताबों के लिए उधार और ड्रेस के लिए भी उधार कोकड़ी के दिव्यांग प्रशिक्षण केंद्र का यही है हाल।
यह सुनकर लगेगा मानो कोई फिल्मी डायलॉग हो, लेकिन यह कड़वी सच्चाई है। गरियाबंद जिले के कोकड़ी गांव में चल रहे दिव्यांग प्रशिक्षण केंद्र में आज 65 मासूम बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। ये बच्चे केवल अक्षर ही नहीं, बल्कि ब्रेल लिपि और साइन लैंग्वेज भी सीखते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि इनका भविष्य सरकारी नीतियों के सहारे नहीं, बल्कि उधारी की नोटबुक पर लिखा जा रहा है।

गरियाबंद दिव्यांग प्रशिक्षण केंद्र 3 साल से बिना सरकार के सहारे
इस केंद्र को चलाने वाली संस्था की संचालिका शीला यादव बताती हैं कि पिछले तीन साल से समाज कल्याण विभाग का कोई सहयोग नहीं मिल रहा। हालात यह हैं कि बच्चों के खाने से लेकर यूनिफॉर्म तक सब उधार पर चल रहा है। स्टाफ और रसोई की महिलाएँ डेढ़ साल से बगैर वेतन काम कर रही हैं। हमने ब्रेल और साइन लैंग्वेज पढ़ाने के लिए विशेष शिक्षक रखे, लेकिन उन्हें भी तनख्वाह नहीं दे पा रहे। कभी बच्चों का खाना उधार, कभी किताबें उधार अब तो लगता है हम स्कूल नहीं, उधारी का प्रशिक्षण केंद्र चला रहे हैं।
शीला यादव, संचालिका

विभाग का तर्क कागज़ लाओ, तभी काम होगा
उधर समाज कल्याण विभाग के उपसंचालक डी.पी. ठाकुर का कहना है कि संचालिका को कई बार बुलाया गया, लेकिन वे कागज़ पूरे नहीं लाई। उनका साफ कहना है । डॉक्यूमेंटेशन अधूरा है, इसलिए मदद नहीं हो सकती। यानि, विभाग की नज़र में बच्चों का पेट भरे या न भरे, फाइल का पेट भरना ज़रूरी है।
बच्चे पूछ रहे हैं हम जाएं तो जाएं कहां?
अब सवाल यह है कि समाज से पहले ही उपेक्षित रहने वाले दिव्यांग बच्चे जब सरकार और प्रशासन से भी उपेक्षा झेलेंगे, तो फिर उम्मीद किससे करेंगे? जब मासूमों की पढ़ाई और भोजन कागज़ी औपचारिकताओं में अटक जाए, तो दिव्यांग सशक्तिकरण जैसे नारे केवल दीवारों पर अच्छे लगते हैं, ज़मीन पर नहीं।
एनजीओ और विभाग की रस्सा कस्सी के बीच फंसे बच्चे
गरियाबंद का यह मामला सिर्फ एक स्कूल की कहानी नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की पोल है। यहां अधिकारी बच्चों को नहीं, फाइलों को पढ़ते हैं। और बच्चे स्कूल में नहीं, उधारी की गिनती में बड़े हो रहे हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि समाज कल्याण विभाग और एनजीओ दोनों अपनी-अपनी जिद छोड़कर इन मासूमों के लिए कुछ कर पाते हैं या फिर बच्चों का भविष्य सरकारी टेबल पर पड़ी मोटी फाइलों की तरह धूल फांकता रहेगा।
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