हिमांशु साँगाणी पैरी टाईम्स 24×7 डेस्क गरियाबंद
नक्सली पुनर्वास गरियाबंद में पिछले 9 महीनों में 27 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण कर नई राह चुनी। जानसी, झुमकी, मंजुला, रनीता, रमेश और संतराम अब सिलाई, कढ़ाई, ड्राइविंग और प्लंबिंग से जीवन संवार रहे हैं। सरकार की पुनर्वास नीति ने बंदूक छोड़ने वालों को नया सपना दिया।
गरियाबंद नक्सली पुनर्वास गरियाबंद में पिछले 9 महीनों में 27 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण कर नई राह चुनी। जानसी, झुमकी, मंजुला, रनीता, रमेश और संतराम अब सिलाई, कढ़ाई, ड्राइविंग और प्लंबिंग से जीवन संवार रहे हैं। सरकार की पुनर्वास नीति ने बंदूक छोड़ने वालों को नया सपना दिया।

नक्सली पुनर्वास गरियाबंद में बदलाव की कहानी
कभी जंगलों की पगडंडियों पर बंदूक थामे दौड़ने वाले पैर, आज सिलाई मशीन के पैडल पर ताल दे रहे हैं। जिन हाथों ने बरसों तक ट्रिगर दबाया, वही हाथ अब धागे की गांठें सुलझा रहे हैं। जिन पैरों ने जंगल की पगडंडियों को नापा, वही अब आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं। यह कहानी केवल छह चेहरों की नहीं, बल्कि पूरे गरियाबंद की है। जहां पिछले 9 महीनों में 27 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण कर मुख्यधारा में लौटने का साहस दिखाया है। इनमें से छह इनामी नक्सली जानसी, झुमकी, मंजुला, रनीता, रमेश और संतराम आज लाइवलीहुड कॉलेज में हुनर सीखकर जिंदगी का नया सिलसिला बुन रहे हैं।

बंदूक से सुई-धागे तक का सफर
जानसी 8 लाख की इनामी नक्सली, 20 साल जंगल में बिताने के बाद अब सिलाई सीख रही हैं।
झुमकी, मंजुला और रनीता जिन पर 5-5 लाख का इनाम था, अब कढ़ाई-बुनाई और दसवीं की परीक्षा की तैयारी कर रही हैं।
रमेश और संतराम दोनों ड्राइविंग और प्लंबिंग सीखकर रोज़गार की राह तलाश रहे हैं।
झुमकी कहती हैं । पहले जंगल में जान हथेली पर रहती थी, अब जिंदगी धागों में सजीव लगती है।
संतराम का कहना है ।अब डर की नहीं, मेहनत की कमाई करनी है।

सरकार की योजनाओं का असर
लाइवलीहुड परियोजना अधिकारी सृष्टि मिश्रा बताती हैं कि आत्मसमर्पित नक्सलियों में सीखने की गजब की ललक है। महिलाओं को सेल्स और मार्केटिंग की ट्रेनिंग भी दी जा रही है और सुपर बाजार से ऑफर आ चुके हैं।

गरियाबंद एसपी निखिल राखेचा कहते हैं
सरकार आत्मसमर्पित नक्सलियों के पुनर्वास के लिए पूरी गंभीरता से काम कर रही है, ताकि उन्हें भविष्य में किसी कठिनाई का सामना न करना पड़े।
पहले ट्रिगर के भरोसे अब पैडल से संवर रही जिंदगी
पहले जंगल की मीटिंगें थीं, अब कॉलेज की क्लासें हैं। पहले हथियारों के ऑपरेशन थे, अब कपड़ों पर डिजाइन के ऑपरेशन हैं। पहले गोलियां चलती थीं, अब सिलाई मशीन की टक-टक गूंजती है।झुमकी मजाक में कहती है ।पहले ट्रिगर दबाना पड़ता था, अब पायडल दबाना पड़ता है। फर्क इतना है कि अब जान नहीं जाती, डिजाइन बनती है।
गर्व के साथ साथ नई सोच
मंजुला कहती हैं जब नक्सलियों के साथ थी, तब भविष्य का कोई ख्याल नहीं था। अब सपना है कि खुद पैसा कमाऊं और परिवार को संभालूं।
रनीता जोड़ती हैं जंगल में समय का कोई महत्व नहीं था, पर अब हर घंटे की कीमत समझ आई है।गरियाबंद की बस्तियां आज गर्व महसूस कर रही हैं। यह बदलाव केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि पूरे समाज की नई पहचान है।

27 आत्मसमर्पण नई सुबह की मिसाल
पिछले 9 महीनों में गरियाबंद में 27 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है। रमेश कहते हैं हम बाकी साथियों से भी कहना चाहते हैं कि सरकार की नीति का फायदा उठाओ। जंगल छोड़ो और जिंदगी अपनाओ सरकार अपनी समर्पण नीति के प्रति कितनी गंभीर है इसका उदाहरण गरियाबंद में आत्मसमपर्ण कर मुख्य धारा में लौटने वाले ये नक्सली है । इससे यह बात साबित होती है अगर मौके और सम्मान दिए जाएं तो बंदूक की जगह सुई थामना भी संभव है। सरकार की पुनर्वास योजना, समाज का सहयोग और आत्मसमर्पित नक्सलियों का साहस इन तीनों ने मिलकर बदलाव की कहानी लिखी है।
आज गरियाबंद की पहचान केवल नक्सल इलाका नहीं, बल्कि बदलाव और नवजीवन की प्रयोगशाला बन चुकी है।
पिछले 9 माह की सफलता ने बदली तस्वीर
पिछले 9 महीनों में 27 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया।
जानसी पर 8 लाख, झुमकी, मंजुला और रनीता पर 5-5 लाख का इनाम था।
महिलाएं सीख रहीं सिलाई-कढ़ाई, पुरुष जुटे ड्राइविंग-प्लंबिंग में।
अब डर की नहीं, मेहनत की कमाई करनी है आत्मसमर्पित नक्सली।
जहां गोलियों की गूंज थी, अब वहां सिलाई मशीन की टक-टक है।
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