हिमांशु साँगाणी
गरियाबंद, में सरकारी कार्यालयों का हाल कुछ ऐसा है जैसे स्कूल में वो बच्चे जो क्लास के बजाय कैंटीन में ज्यादा मिलते हैं। कलेक्टर दीपक अग्रवाल ने जब औचक निरीक्षण किया तो पाया कि कई सरकारी कर्मचारी और अधिकारी अपने “सरकारी” दायित्वों से ज्यादा अपनी “गैर-सरकारी” व्यस्तताओं में लगे हुए हैं। नतीजा? फिर से एक बार नोटिसों की बारिश!

दफ्तर तो खाली मगर वेतन पूरा ।
सुबह 10 बजे जब कलेक्टर ने कृषि, मत्स्य, आरईएस, पीएमजीएसवाय और महिला एवं बाल विकास विभाग के दफ्तरों में पहुंचे, तो वहां कुछ कुर्सियां खाली, कुछ फाइलें धूल से ढकी और कुछ टेबलें ऐसी थीं मानो सदियों से उनका कोई वारिस ही नहीं। तय समय पर नदारद अधिकारियों और कर्मचारियों की हाजिरी लगाने के लिए कलेक्टर ने नोटिस जारी कर दिया। पर सवाल यह उठता है कि क्या ये नोटिस उन अधिकारियों तक पहुंचेंगे, जो खुद दफ्तर में पहुंचने से कतराते हैं?
रायपुर से “पेंडुलम” अफसरों का खेल!
अब जरा सोचिए, तनख्वाह गरियाबंद से, सरकारी गाड़ी से आना-जाना रायपुर से, और हाजिरी? वो तो स्टॉफ लगा ही देता है! जिले के अधिकांश बड़े अधिकारी गरियाबंद में रहना ही नहीं चाहते। सरकारी बंगलों से ज्यादा उन्हें रायपुर के मॉल और कैफे पसंद आते हैं। रायपुर से गरियाबंद आना-जाना उनके लिए “फील्ड वर्क” से ज्यादा एक “लॉन्ग ड्राइव” का मजा देता है।
फाइलें व्यवस्थित रखने का आदेश !
निरीक्षण के दौरान कलेक्टर ने अधिकारियों को फाइलों को करीने से रखने, साफ-सफाई करने और ऑफिस का फोटो भेजने का आदेश दिया। अब देखना दिलचस्प होगा कि फाइलें सही में व्यवस्थित होंगी या फिर नया बहाना तैयार होगा – “सर, सफाई तो हो गई थी, लेकिन फोटो खींचने वाला भी रायपुर से आ-जा रहा था!”
जनता पूछ रही है—कब बदलेगा सिस्टम?
सरकारी दफ्तरों में ये लापरवाही आम जनता को ही परेशान करती है। जो लोग किसी जरूरी काम से सरकारी दफ्तरों में जाते हैं, उन्हें या तो साहब फिर आज मीटिंग में हैं या फिर फील्ड में है का रटारटाया जवाब का बहाना। ऐसे में जनता पूछ रही है—जब आम आदमी को 9 बजे ऑफिस पहुंचना जरूरी है, तो अफसरों के लिए क्यों नहीं?
अब देखना यह है कि कलेक्टर के नोटिसों का असर होता है या फिर कुछ दिनों बाद यह मामला भी ठंडे बस्ते में चला जाता है, और साहब फिर से रायपुर से अपनी रोज़ाना की “लॉन्ग ड्राइव” पर निकल पड़ते हैं!
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