हिमांशु साँगाणी गरियाबंद
बिलासपुर। छत्तीसगढ़ में शिक्षा के अधिकार अधिनियम (RTE) पर अमल हो रहा है या अमला इसे धूल चटा रहा है? यह सवाल हाईकोर्ट ने उठाया है, क्योंकि जनहित याचिका में बताया गया कि निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए 25% सीटों का आरक्षण मजाक बनकर रह गया है। RTE एडमिशन के नाम पर सिर्फ 3% बच्चों को दाखिला मिल रहा है और बाकी सीटों पर “स्पेशल कोटा” से भरती हो रही है। अब कोर्ट ने सरकार और शिक्षा विभाग से पूछा है कि “असली कोटा” आखिर जाता कहां है?

स्कूलों की ‘एडमिशन गणित’ में गरीब बच्चे फेल
जनहित याचिका में बताया गया कि पिछले साल सवा लाख एडमिशन RTE के तहत कम हुए हैं। सरकार और शिक्षा विभाग से इसका पूरा हिसाब मांगा गया है। हाईकोर्ट ने तल्ख लहजे में कहा कि 6 से 14 साल के बच्चों की मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा सिर्फ किताबों में ही क्यों दिखती है? गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूल तो हैं, मगर प्राइवेट स्कूल वालों का कहना है—”हम तो डोनेशन-फीस से ही पढ़ाते हैं!”
स्कूलों का ‘शिक्षा प्रेम’ और RTE का गणित
निजी स्कूलों पर आरोप है कि वे गरीब बच्चों के फार्म रिजेक्ट कर, उन्हीं सीटों को डोनेशन और ऊँची फीस में बेच रहे हैं। हाईकोर्ट ने पूछा कि RTE का 25% कोटा आखिर किस तिजोरी में जमा हो रहा है? कई स्कूलों ने तो नया फॉर्मूला निकाला—”घर से 100 मीटर दूर हो तो एडमिशन नहीं!” अब गरीबों के बच्चे यह नापने में लगे हैं कि उनका घर स्कूल से कितनी मीटर दूर है!
हाईकोर्ट ने सरकार से कहा—”RTE के नियम सिर्फ कागज पर क्यों?”
जनहित याचिका दाखिल करने वाले भिलाई के समाजसेवी सीवी भगवंत राव का कहना है कि 2012 से यह मुद्दा उठा रहे हैं, मगर स्कूलों की “अनदेखी नीति” जारी है। हाईकोर्ट ने 2016 में भी आदेश दिए थे, लेकिन स्कूलों ने इसे “पुरानी किताब” समझकर बंद कर दिया। अब कोर्ट ने साफ कर दिया है—”RTE की सीटें गरीब बच्चों को ही मिलेंगी, वरना अगला सबक कड़ा होगा!”
अब देखना ये है कि RTE के नाम पर खेल खेलने वाले स्कूलों की क्लास लगेगी या फिर कोर्ट को ही एडमिशन देकर क्लासरूम में बैठना पड़ेगा! हाईकोर्ट जल्द ही अपना फैसला सुनाएगा, तब तक स्कूलों के बड़े बाबू और सरकार का “होमवर्क” जारी है।