हिमांशु साँगाणी
गरियाबंद गिरसूल पंचायत में सरपंच चुनाव से पहले एक नया ड्रामा सामने आया है। प्रत्याशी जितेन्द्र मांझी का नामांकन दाखिल होते ही राजनीतिक गलियारों में कानाफूसी शुरू हो गई है। वजह साफ है—उनकी पत्नी तिरोजा मांझी पर पहले से ही 2,71,000 रुपये का सरकारी बकाया है। इस रकम से काम होना था, लेकिन पैसा पंचायत के खाते से गायब हो गया और काम अभी तक पंचायत की “इच्छा सूची” में ही अटका हुआ है।

“बकाया जमा करो या चुनाव लड़ो?”
अब सवाल उठता है कि जब सरकारी नियम साफ कहते हैं कि बकायादार के परिवार को चुनाव में टिकट नहीं मिल सकता, तो फिर मांझी जी का नामांकन कैसे हो गया? क्या नियम सिर्फ किताबों में सजे रहने के लिए हैं, या यहां कुछ “खास” मेहरबानी की गई है?
गांव के चौराहों पर चर्चा जोरों पर है—“पैसा भले ही सरकारी हो, मगर कागजों में सब साफ है।”
पंचायत सचिव ने भी हर बार उदारता दिखाते हुए मांझी परिवार को अदेय प्रमाण पत्र थमा दिया। क्या सचिव महोदय ने “सब ठीक है” का चश्मा पहन लिया है, या फिर पंचायत में कोई छुपा हुआ समझौता चल रहा है?
“सरकारी धन और गुप्त रास्ते”
स्थानीय लोग इस मामले में सवाल उठा रहे हैं कि जब एक तरफ आम ग्रामीणों को मामूली देरी पर नोटिस थमा दिया जाता है, तो मांझी परिवार को बार-बार क्यों बख्शा जा रहा है? कहीं यह “सियासी सेटिंग” तो नहीं, जो हर बार मांझी जी के पक्ष में नियमों को ढीला कर देती है?
अब जनता की अदालत
अब देखना दिलचस्प होगा कि क्या प्रशासन कन्हैया मांझी द्वारा की गई इस आपत्ति को गंभीरता से लेकर जांच करेगा, या फिर इसे भी “एक चुनावी भूल” मानकर अनदेखा कर दिया जाएगा। ग्रामीणों की नजरें अब इस फैसले पर टिकी हैं, और यह मामला सिर्फ पंचायत तक नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर भी सुर्खियां बनता जा रहा है।